Nikhil

ऐ मेरे वतन

ऐ मेरे वतन
क्या हाल है तेरी गलियों का
यहाँ ज़रा ख़्याल नहीं किसी को
गुनाहों से भरी नालियों का

यह क्या बात है कि तेरी बात जो
सारे जहाँ में होती थी
जहाँ शर्म सबमें जागती थी
जहाँ औरत चैन से सोती थी

वहाँ ये कैसी रीत चली है
बेशर्म से ख़यालों की
तग़ाफ़ुल की नासवालों की

इसीलिए क्या पाले थे
ऐ वतन तूने आदमी
कि हर जगह हो औरतों का
डर के रहना लाज़मी

ये कैसे काम हैं जिनमें
हर शख़्स ही मसरूफ़ है
कि वक़्त नहीं है ज़रा भी अब
किसी गुनाह पर बोलने का
अपने लबों को खोलने का

मेरे वतन यहाँ सब
इंतज़ार में लगते हैं
अपनी बारी आने के
कोई किस्सा हो जाने के

फिर शायद क़ायल हो
वो आवाज़ उठाने के