ऐसी ज़िंदगी
कहीं ज़िंदगी कितनी हसीन
कहीं कितनी ना मुनासिब है
दर दर जा कर हर दर से ही
क्या ग़म पा लेना वाजिब है
क्या इसे ही जीना कहते हैं
क्या इस लिए हम यहाँ रहते हैं
एक ग़म से नजात पाते हैं
और दूसरे की गिरफ़्त में जाते हैं
यूँ लगता है हम ग़मों के बीच
बारी बारी बांटे जाते हैं
ऐसे जहाँ में भी लम्बी उम्र की
लोग दुआएँ दिए जाते हैं
क्या यहाँ रहने का कोई और काम है
ख़ुशी क्या ग़म न होने का नाम है
जहाँ हर लम्हा ही ग़म छिड़कता हो
ऐसे वक़्त का ही फिर क्या अंजाम है
ज़िंदगी भी कितनी अदा से
दर्द अता फ़रमाती है
किसी बात से आस बँधवाकर
फिर उससे खंजर खिलवाती है
किसी हसीन ख़्वाब सी हो कर
पहले नज़दीक आती है
ख़्वाब की ज़मीन पर फिर
हादसों के फूल सजाती है
ऐसी ज़िंदगी भला किस तरह जी जाती है