ग़ज़ल
झुकी झुकी सी पलकें हैं खिले खिले से गाल हैं
कहीं किसी ने कुछ कहे बिना ही चल दी चाल है
कहीं किसी के घर में हैं कई तरह की लज़्ज़तें
कहीं किसी के शाम के निवाले पर सवाल है
हज़ार रूप ले के आ चुका भले जहान में
है क्या हुनर के हर दफ़ा पुराने से कमाल है
न वो मिले न और की तलाश अब मुझे रही
बची है जान जंग में मगर बदन निढाल है
किसी की बात सोच कर यूँ चुप क्यों हो गए निखिल
वो हैं किसी की बाहों में उन्हें न कुछ मलाल है