इब्न-ए-खालिक़
इब्न-ए-खालिक़
कैसे हो तुम
खबर है ख़फ़ा मुझसे
रहते हो तुम
मेरे इब्न, मेरे प्यारे
यह क्या रोना है, क्या मजबूरी है
मैं तुझे हूँ अपना कहता
तेरी चाहत फिर, क्यों अधूरी है
क्यों लगा रहता है तू
निस दिन ही नई सी चाल में
फिर अटक जाता है तू
खुद ही के बुने जंजाल में
मैंने तुझ को कहा है ना
मैं नित ही तेरे पास हूँ
फिर क्यों बूत को जाके
कहता है तू तेरी आरज़ू
मैं आज अभी इस पल ही दूंगा
तू आके दिल से मांग तो सही
चल ना भी दू जो कुछ कभी तो
अपनी भलाई पहचान तो सही
तू मुझसे आ कर मांगता है
जब भी औरों का बुरा
तू क्यों बिसर जाता है यह
मैं उनका भी तो हूँ खुदा
तू मैं ही हूँ, ये जान ले
तू मुझको अपना मान ले
फिर कुछ कमी ना होगी
मेरे इब्न, मेरे लाड़ले
बस मुझको अपना मान ले