कभी तो
बंद कमरों में रौशनी
आएगी कभी तो
ख़ुश्क शाखों में नमी
आएगी कभी तो
आँखें वो देखती हैं जो दुनिया दिखाए
अपने मन का देखने की बारी
आएगी कभी तो
परेशानियाँ मिलकर तोड़ती हैं
खुशियों की कोई फ़ौज बचाने
आएगी कभी तो
धीरे-धीरे सीखते हैं
सलीक़ा काम को करने का
मोहब्बत करनी भी
आएगी कभी तो
पेड़ तन्हा कई मास खड़ा रहता है
इस उम्मीद में कि बहार
आएगी कभी तो
सिलसिला बनता ही चला जाता है
कर्म का, गुनाह का, उम्मीद का
सिलसिला तोड़ने वाली खड्ग
आएगी कभी तो
बेकरारी के समंदर में
एक वक़्त के बाद डूब जाते हैं
कोई कश्ती बचाने वाली
आएगी कभी तो
लिखने से बात पूरी नहीं होती मगर
कोई निखिल नज़्म
आएगी कभी तो