Nikhil

मैं आज कैसे समाज में हूँ

मैं आज कैसे समाज में हूँ
बेअदब सरीखे मिज़ाज में हूँ
सही और गलत यहाँ एहम नहीं
होड़ के बनाये रिवाज़ में हूँ

यहाँ मारूफ़ ही सही है
जो नफ़ा दे सच वही है
दायमी सत की तलाश को
फ़ुज़ूल वक़्त यहाँ नहीं है

भीतर से किसको काम है
यहाँ हर शरीर पे दाम है
सोचना भी जो गुनाह था कभी
वो हो जाना अब आम है
मैं डरता हूँ ए ख़ुदा
कितना बुरा होना अंजाम है
सुबह आजकल मजबूरी सी
बड़ी बेबसी भरी शाम है
कितना बुरा होना अंजाम है

अक्सर यह सब जानते हुए
दरवाज़े काले पहचानते हुए
उन्हें खोल मैला हो जाता हूँ
मैं पाक नहीं रहता
गुनहगार हो जाता हूँ

आज मैं होश थामे
सिर्फ़ यह अर्ज़ी लगाता हूँ
इन अचेत कर्मो से मैं
पक्की रिहाई चाहता हूँ