महबूब कैसे मनाए जाते हैं
मेरे दिलनशीं, तूने देखा नहीं
एक मुद्दत से मुड़कर मेरी ओर
सौ ख़याल बेकार बैठकर
तेरा नाम लिए करते हैं शोर
तुझे एहसास नहीं शायद
तेरे मुस्कुराने भर से
किसी का रूठा दिन हँस पड़ता है
किसी के दिल को ज़रा सुकून आता है
तुम तो नज़र मिलाकर गुज़र जाते हो
वो शख़्स मगर वहीं ठहर जाता है
जिसे क़ुदरत में कोई दिलचस्पी न थी
उसे तेरे ज़रिए हुस्न समझ आता है
वो समझदार जो चाँद को
महज़ रात की अलामत कहता था
वो अब चाँद में तेरी सूरत पाता है
किस तरह से छुपे रहते हैं जज़्बात
कोई बेख़बर रहता है, कोई बर्बाद
नशे सा तारी होता है हाल ख़याल पर
जैसे चढ़ता हो जवाब का उजाला सवाल पर
वही दुनिया जिसमें कल तक सब पुराना था
वही जैसे निखर जाती है एक नज़र कमाल पर
ये जज़्बे भला किस तरह बताए जाते हैं
बिन गाए नग़मे कैसे सुनाए जाते हैं
या यही है इस ज़मीन पर दस्तूर कि
दिलवाले बेरुख़ी से यूँ ही सताए जाते हैं
मैं तलाश में हूँ उसकी जो ये बताए कि
आजकल महबूब कैसे मनाए जाते हैं