Nikhil

समंदर के किनारे पर

समंदर के किनारे पर
एक जंग चलती हर पहर
ज़मीन से लड़ती हर लहर
माँगती कुछ और शहर

कई कई लहरें, जंग के चेहरे ओढ़ कर आती हैं
किनारे पर लड़ते लड़ते कही खो जाती हैं
पत्तियाँ सर-सर करती जंग का शंख बजाती हैं
हवाएँ जैसे लहरो को दौड़ाकर किनारे लाती हैं
इस जंग से आती आवाज़ें बड़ा दिल लुभाती हैं
ये कैसी जंग है जिसे देख नज़र भर आती है
निगाहें इसे कुछ और देर ठहरकर तकना चाहती हैं
ये आवाज़ें मेरे दिल को मौसीक़ी से ज़्यादा भाती हैं

ढलता सूरज ढलके जैसे
दरिया की तरफ़ से लड़ता है
लहरों का हुनर बढ़ता है
जैसे जैसे दिन ढलता है
ज़मीन पर दरिया चढ़ता है
जैसे जैसे दिन ढलता है

समंदर के किनारे पर
एक जंग चलती हर पहर
ज़मीन से लड़ती हर लहर
माँगती कुछ और शहर