Nikhil

ज़ालिम रात

ज़ालिमों में ज़ालिम है रात
कैसी हसीन संग-दिल है रात
गर हो संग महबूब तो हसीन
वरना तो बड़ी तंग-दिल है रात

चुपके से शाम को
आसमान के परदे पर दाख़िल होती है
और कुछ ही पलों में
रौशनी निगल कर हर ओर शामिल होती है

फिर हर पहर, हर मिनट
ज़ुल्म तोड़ती है जागे हुए दिलों पर
दिल पढ़ने का हुनर जानती है जफ़ा-पसंद
जैसे ही आती है, दिल में छिपी बातों को
खींच कर ख़याल में लाती है
फिर तो क्या कहना कैसे-कैसे सताती है
ज़ुल्म करने को अक्सर
अपने संग एक कारगर साथी भी लाती है

मासूम चमकदार गेंद-सा लगता है
मगर कुछ पल जो झाँको उसकी आँखों में
तो दिल में रहते किसी अपने-सा लगता है
चाँद कहते हैं दुनिया में उसे
मगर मुझे तो वो किसी हसीन सितमगर सा लगता है

सूरत ऐसी ख़ूब कि हर नज़र ठहर जाए
और हर ठहरी नज़र पर वो ऊपर से दर्द बरसाए
बेदर्दी की इन्तेहा तो यूँ है कि
एक साथ सैकड़ों दिलों को जलाते तरसाते जगाए
किसी बीती हुई बात को मुसलसल ज़हन में घुमाए

मुझे तो लगता है कि
इससे पहले कि रात
अंगारों से ज़ुल्म बरसाए
बेहतर है कि दिलवाले
आँखें मूँद ले, सो जाए